हरतालिका तीज व्रत की पौराणिक कथा

hartalika teej vrat katha

भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हरतालिका (तीज) व्रत की संज्ञा से विभूषित किया गया है। इस व्रत का महत्त्व आज से नहीं, अपितु प्राचीन समय से ही है। इसका मुख्य कारण यह है कि इस व्रत को विवाह से पूर्व करने से मनोवांछित पति की प्राप्ति निःसन्देह होती है तथा विवाहोपरान्त इस व्रत को करने से स्त्रियाँ अखण्ड सौभाग्यवती होती हैं। तथा सभी प्रकार के सुख एवं ऐश्वर्यों को प्राप्त करती हैं। इस पुस्तक में पूजन-विधान व कथा सरल रूप से प्रस्तुत की गयी है, जिससे सभी इसका अनुसरण कर सकें।

निर्देश

व्रत करने वाले को चाहिए कि सूर्योदय के पहले उठकर भगवान् का स्मरण करे, फिर शौच, दन्तधावन, स्नान तथा सन्ध्या-वन्दन आदि से निवृत्त होकर जहाँ शिव-पार्वती का पूजन करना और कथा सुनना हो वहाँ शिव-पार्वती के पूजन के लिए केला, बन्दनवार आदि से सुसज्जित एक छोटा मण्डप बनावे, उसी में अपने बन्धु-बान्धवों के साथ बैठे और अपने आचार्य को आदर पूर्वक बुला कर उनके लिए एक उत्तम आसन बिछा दे। इसके बाद में कुश, जल आदि लेकर ‘ॐ अद्येत्यादि’ से ‘अहङ्करिष्ये’ तक का संकल्प- वाक्य पढ़ कर संकल्प करे, फिर हाथ में अक्षत, फूल लेकर ‘मन्दारमाला’ इस मन्त्र से पार्वतीजी का ध्यान करे। ‘आगच्छ देवि’ तथा ‘राज्य – सौभाग्यदे’ आदि मन्त्रों से आचमन करावे। ‘मन्दाकिनी’ इससे पार्वती को पञ्चामृत से स्नान कराकर शुद्धोदक स्नान करावे । ‘वस्त्रयुग्मं’ इस मन्त्र से वस्त्र का जोड़ा चढ़ावे। ‘चन्दनेन’ इस मन्त्र से चन्दन लगावे । ‘रंजिते’ इस मन्त्र से अक्षत देवे। ‘माल्यादीनि’ इस मन्त्र से फूल-माला चढ़ावे। ‘चन्दनागरु’ इस मन्त्र से धूप देवे, ‘त्वं ज्योति:’ इससे दीप दिखावे, ‘नैवेद्यं’ इससे नैवेद्य चढ़ावे। ‘इदं फलं’ इस मन्त्र से फल चढ़ावे। ‘पूगीफलं’ इससे पान, ‘सौभाग्यं’ इससे प्रार्थना करे।

सूतजी कहते हैं- मन्दार की माला से जिन (पार्वतीजी) का केशपाश अलंकृत है और मुण्डों की माला से जिन (शिवजी) की जटा अलंकृत है, जो (पार्वतीजी) दिव्य वस्त्र धारण की हैं और जो (शिवजी) दिगम्बर (नंगे) हैं, ऐसी श्रीपार्वतीजी तथा शिवजी को प्रणाम करता हूँ || १ || 

रमणीक कैलास पर्वत के शिखर पर बैठी हुई श्रीपार्वतीजी कहती हैं- हे महेश्वर ! हमें कोई गुप्त व्रत या पूजन बताइये || २ || 

जो सब धर्मों से सरल हो, जिसमें परिश्रम भी कम करना पड़े, लेकिन फल अधिक मिले। हे नाथ ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हों तो यह विधान बताइये || ३ || 

हे प्रभो ! किस तप, व्रत या दान से आदि, मध्य और अन्त रहित आप जैसे महाप्रभु हमको प्राप्त हुए हैं || ४ || 

शिवजी बोले-हे देवि! सुनो, में तुमको एक व्रत जो मेरा सर्वस्व और छिपाने योग्य है, लेकिन तुम्हारे प्रेम के वशीभूत होकर मैं तुम्हें बतलाता ॥ ५ ॥

जैसे-नक्षत्रों से चन्द्रमा, ग्रहों में सूर्य, वर्णों में ब्राह्मण, देवताओं में विष्णु भगवान् ||६||

नदियों में गंगा, पुराणों में महाभारत, वेदों में सामवेद और इन्द्रियों में मन श्रेष्ठ है || ७ || 

सब पुराण और वेदों का सर्वस्व जिस तरह कहा गया है, मैं तुम्हें एक प्राचीन व्रत बतलाता हूँ, एकाग्र मन से सुनो ॥८॥ जिस व्रत के प्रभाव से तुमने मेरा आधा आसन प्राप्त किया है, वह मैं तुमको बतलाऊँगा, क्योंकि तुम मेरी प्रेयसी हो || ९ || 

भाद्रपद मास में हस्त नक्षत्र से युक्त शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को उसका अनुष्ठान मात्र करने से स्त्रियाँ सब पापों से मुक्त हो जाती हैं ||१०|| 

हे देवि ! तुमने आज से बहुत दिनों पहले हिमालय पर्वत पर इस व्रत को किया था, यह वृत्तान्त मैं तुमसे कहूँगा || ११ || 

पार्वतीजी ने पूछा- हे नाथ! मैंने क्यों यह व्रत किया था, यह सब आपके मुख से सुनना चाहती हूँ || १२ || 

शिवजी ने कहा-भारतवर्ष के उत्तर की ओर एक बड़ा रमणीक और पर्वतों में श्रेष्ठ हिमवान नामक पर्वत है। उसके आस-पास तरह-तरह की भूमियाँ हैं, तरह-तरह के वृक्ष उस पर लगे हुए हैं || १३ ||

नाना प्रकार के पक्षी और अनेक प्रकार के पशु उस पर निवास करते हैं। वहाँ पहुँच कर गन्धर्वों के साथ बहुत से देवता, सिद्ध, चारण, पक्षीगण सर्वदा प्रसन्न मन से विचरते हैं। वहाँ पहुँच कर गन्धर्व गाते हैं, अप्सरायें नाचती उस पर्वतराज के कितने ही शिखर ऐसे हैं कि जिनमें स्फटिक, रत्न और वैदूर्यमणि आदि की खाने भरी हैं । । १४-१५ || यह पर्वत ऊँचा तो इतना अधिक है कि मित्र के घर की तरह समझ कर आकाश का स्पर्श किये रहता है। उसके समस्त शिखर सदैव हिम (बर्फ) से आच्छादित रहते हैं और गङ्गा-जल की ध्वनि सदा सुनाई देती रहती है || १६ || 

हे पार्वती ! तुमने बाल्यकाल में उसी पर्वत पर तपस्या की थी । बारह वर्ष तक तुम उलटी टँगकर केवल धुआँ पीकर रही । । १७ || 

चौंसठ वर्ष तक सूखे पत्ते खाकर रही। माघ मास में तुम जल मैं बैठी रहती और वैशाख की दुपहरिया में पंचाग्नि तापती थी || १८ || 

श्रावण के महीने में जल बरसता तो तुम भूखी-प्यासी रह कर मैदान में बैठी रहती थी। तुम्हारे पिता इस तरह के कष्ट सहन को देख कर बड़े दुःखी हुए || १९ || 

वे चिन्ता में पड़ गये कि मैं अपनी कन्या किसको दूँ, उसी समय नारदजी वहाँ आ पहुँचे||२०|| 

मुनिश्रेष्ठ नारदजी उस समय तुम्हें देखने गये थे, नारदजी को देखकर गिरि ने अर्घ्य पाद्य, आसन आदि देकर उनकी पूजा की और कहा || २१ ||

हे स्वामिन् ! आप किस लिए आये हैं। मेरा अहो भाग्य है, आपका आगमन मेरे लिए अच्छा है||२२|| 

नारदजी ने कहा- हे पर्वतराज ! सुनो, मैं भगवान् विष्णु का भेजा हुआ आपके पास आया हूँ। आपको चाहिए कि यह कन्यारत्न किसी योग्य वर को दें || २३ || 

भगवान् विष्णु के समान योग्य वर ब्रह्मा, इन्द्र और शिव इनमें- से कोई नहीं है। इसलिये मैं यही कहूँगा कि आप अपनी कन्या भगवान् विष्णु को ही देवें || २४ || 

हिमवान् ने कहा-भगवान् विष्णु स्वयं मेरी कन्या ले रहे हैं और आप यह सन्देश लेकर आये हैं, तो मैं उन्हें अपनी कन्या दूँगा || २५ || 

हिमवान् की इतनी बात सुनकर मुनिराज नारद आकाश में विलीन हो गये। वे पीताम्बर, शङ्ख, चक्र और गदाधारी भगवान् विष्णु के पास पहुँचे॥२६॥ वहाँ हाथ जोड़कर नारदजी ने भगवान् विष्णु से कहा- हे देव ! सुनिये, मैंने अपना विवाह पक्का करा दिया || २७|| 

उधर हिमवान् ने पार्वती के पास जाकर कहा कि हे पुत्री ! मैंने तुम्हें भगवान् विष्णु को दे डाला ||२८|| 

तब पिता की बात सुनकर तुम बिना उत्तर दिये ही अपनी सखी के घर चली गयी। वहीं जमीन पर पड़ कर तुम बड़ी दुःखी होती हुई विलाप करने लगी || २९ ||

तुमको इस तरह विलाप करते देख एक सखी ने पास आकर कहा-देवि, तुम क्यों इतनी दुःखी हो, इसका कारण बताओ ||३०|| 

तुम्हारी जो कुछ इच्छा होगी मैं यथाशक्ति उसको पूरा करने की चेष्टा करूँगी, इसमें कोई संशय नहीं है। पार्वती बोलीं- मेरी जो कुछ अभिलाषा है उसे तुम प्रेमपूर्वक सुनो, मैं एकमात्र शिवजी को अपना पति बनाना चाहती हूँ, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। मेरे इस विचार को पिताजी ने ठुकरा दिया है || ३१-३२ ||

इससे मैं अपने शरीर को त्याग दूँगी। पार्वती की इस बात सुन कर सखियों ने कहा ||३३|| 

कि शरीर का त्याग न करो, चलो किसी ऐसे वन को चलें जहाँ पिता को पता न लगे। ऐसी सलाह कर तुम वैसे वन में जा पहुँची || ३४ || 

उधर तुम्हारे पिता घर-घर तुम्हें खोजने लगे। दूतों द्वारा भी खबर लेने लगे कि कौन देवता या किन्नर मेरी पुत्री को हर ले गया है || ३५ || 

उन्होंने मन-ही-मन कहा-मैं नारदजी के आगे प्रतिज्ञा कर चुका हूँ कि अपनी पुत्री भगवान् विष्णु को दूँगा। ऐसा सोचते-सोचते हिमवान् मूर्च्छित हो गये॥ ३६ ॥ 

गिरिराज को मूर्च्छित देखकर सब लोग हाहाकार करते दौड़ पड़े। जब होश हुआ तो सब पूछने लगे कि गिरिराज ! आप अपनी मूर्च्छा का कारण बताइये?|| ३७||

हिमवान् ने कहा- आप लोग मेरे दुःख का कारण सुनें, न मालूम कौन मेरी कन्या को हर ले गया है। ऐसा नहीं हुआ तो उसे किसी काले साँप ने काट लिया या सिंह खा गये होंगे || ३८ || 

हाय ! हाय ! मेरी बेटी कहाँ गयी ? किसी दुष्ट ने मेरी पुत्री को मार डाला। ऐसा कह वे वायु के झोंके से काँपते हुए वृक्ष के समान काँपने लगे || ३९ || 

इसके बाद हिमवान् तुम्हें वन-वन खोजने लगे। वह वन भी सिंह, भालू, हिंसक जन्तुओं से बड़ा भयानक हो रहा था || ४० || 

तुम भी अपनी सखियों के साथ उस भयानक वन में चलती चलती एक ऐसे जगह जा पहुँची जहाँ एक नदी बह रही थी, उसके रमणीय तट पर एक बड़ी-सी कन्दरा थी । । ४१ || 

तुमने उसी कन्दरा में आश्रम बना लिया और मेरी एक बालुकामयी प्रतिमा बना कर अपनी सखियों के साथ निराहार रह कर मेरी आराधना करने लगी || ४२ || 

जब भाद्रपद शुक्ल पक्ष की हस्तयुक्त तृतीया तिथि प्राप्त हुई तब तुमने मेरा विधिवत् पूजन किया और रात भर जाग कर गीत-वाद्यादि से मुझे प्रसन्न करने में बिताया। उस व्रतराज के प्रभाव से मेरा आसन डगमगा उठा। जिससे मैं तत्काल उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ पर तुम अपनी सखियों के साथ रहती थी||४३-४४ ||

वहाँ पहुँच कर मैंने तुमसे कहा कि मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, बोलो क्या चाहती हो ? तुमने कहा-मेरे देवता ! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं, तो मेरे पति बनें। मेरे ‘तथास्तु’ कह कर कैलास पर्वत पर वापस आने पर तुमने वह प्रतिमा नदी में प्रवाहित कर दी || ४५-४६ || 

और सखियों के साथ उस महाव्रत का पारण किया। हिमवान् भी तब तक उस वन में तुम्हें खोजते हुए आ पहुँचे || ४७ || 

चारों दिशाओं में तुम्हारी खोज करते-करते वे व्याकुल हो चुके थे। इसलिए तुम्हारे आश्रम के समीप पहुँचते ही गिर पड़े। थोड़ी देर बाद उन्होंने नदी के तट पर दो कन्यायें देखीं ॥। ४८ || 

देखते ही उन्होंने तुम्हें छाती से लगा लिया और विलख कर रोने लगे। फिर पूछा- पुत्री ! तुम सिंह, व्याघ्र आदि जन्तुओं से भरे इस वन में क्यों आ पहुँची ? || ४९ || 

पार्वती ने उत्तर दिया – हे पिताजी, मैंने पहले ही अपने-आपको शिवजी के हाथों सौंप दिया था, आपने मेरी बात टाल दी इससे मैं यहाँ चली आयी || ५० || 

हिमवान् ने सान्त्वना दिया कि हे पुत्री ! मैं तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कुछ न करूँगा। तुम्हें अपने साथ ले घर आये और मेरे साथ तुम्हारा विवाह कर दिये। इसीसे तुमने मेरा अर्धासन पाया है। तब से आज तक किसी के सामने मुझे यह व्रत प्रकट करने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ|| ५१-५२ ||

हे देवि ! मैं यह बताता हूँ कि इस व्रत का हरतालिका नाम क्यों पड़ा ? तुमको सखियाँ हर ले गयी थीं, इसीसे हरतालिका नाम पड़ा || ५३ || 

पार्वतीजी ने कहा- हे प्रभो ! आपने नाम तो बताया अब विधि भी बतायें। इसका क्या पुण्य है, क्या फल है, यह व्रत कौन करे ? || ५४ ||

श्रीशिवजी पार्वतीजी से कहते हैं- हे देवि! मैं स्त्री जाति की भलाई के लिए यह उत्तम व्रत बतलाया हूँ। जो स्त्री अपने सौभाग्य की रक्षा करना चाहती हो वह यत्नपूर्वक इस व्रत को करे || ५५ || 

पहले केले के खम्भे आदि से सुशोभित एक सुन्दर मण्डप बनावे। उसमें रंग-बिरंगे रेशमी कपड़ों से चंदवा लगाकर ॥ ५६ ॥ 

चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों से वह मण्डप लिपवावे, फिर शंख, भेरी, मृदंग आदि बजाते हुए बहुत से लोग एकत्रित होकर तरह-तरह के मङ्गलाचार कहते हुए उस मण्डप में पार्वतीजी तथा शिवजी की प्रतिमा स्थापित करें || ५७-५८ ||

उस रोज दिन भर उपवास कर बहुत से सुगन्धित फूल, गन्ध और मनोहर धूप, नाना प्रकार के नैवेद्य आदि एकत्र कर मेरी पूजा करे और रात भर जागरण करे || ५९ || 

ऊपर जो वस्तुएँ गिनाई गई हैं उनके अतिरिक्त नारियल, सुपारी, जमीरी नीबू, लौंग, अनार, नारंगी आदि जो-जो फल प्राप्त हो सके उन्हें इकट्ठा कर लें||६०|| 

उस ऋतु में जो फल तथा फूल मिल सके विशेष रूप से रखें। इसके बाद धूप, दीपादि से पूजन कर प्रार्थना करें || ६१ || 

हे शिवे ! शिवरूपिणि, हे मंगले ! सब अर्थों को देने वाली हे देवि ! हे शिवरूपे ! आपको नमस्कार है || ६२ || 

हे शिवरूपे ! आपको सदा के लिए नमस्कार है, हे ब्रह्मरूपिणि ! आपको नमस्कार है, हे जगद्धात्री ! आपको नमस्कार है || ६३ || 

हे सिंहवाहिनी ! संसार के भय से भयभीत मुझ दीन की रक्षा करो। इस कामना की पूर्ति के लिये मैंने आपकी पूजा की है||६४|| 

हे पार्वती ! मुझे राज्य और सौभाग्य दें, मुझ पर प्रसन्न होवें। इन्हीं मन्त्रों से पार्वतीजी तथा शिवजी की पूजा करे|| ६५ || 

तदनन्तर विधिपूर्वक कथा सुने और ब्राह्मण को वस्त्र, गौ, सुवर्ण आदि देवे ॥ ६६ ॥ 

इस तरह एकचित्त होकर स्त्री-पुरुष दोनों एक साथ पूजन करें। फिर वस्त्र आदि जो कुछ हो उसका संकल्प करें || ६७ ||

हे देवी ! जो स्त्री इस प्रकार पूजन करती है वह सब पापों से छूट जाती है और उसे सात जन्म तक सुख तथा सौभाग्य प्राप्त होता है ॥६८॥ 

जो स्त्री तृतीया तिथि का व्रत न कर अन्न भक्षण करती है, तो वह सात जन्म तक बन्ध्या रहती है और उसको बार-बार विधवा होना पड़ता है||६९|| 

वह सदा दरिद्री, पुत्र-शोक से शोकाकुल, स्वभाव की लड़ाकी, सदा दुःख भोगने वाली होती है और उपवास न करने वाली स्त्री अन्त में घोर नरक में जाती है || ७० || 

तीज को अन्न खाने से सूकरी, फल खाने से बँदरिया, पानी पीने से जोंक, दूध पीने से साँपिन, मांसाहार करने से बाघिन, दही खाने से बिल्ली, मिठाई खाने से चींटी और सब खाने से मक्खी होती है||७१ – ७२ || 

उस रोज सोने से अजगरी और पति को धोखा देने से मुर्गी होती है, इसलिए हर स्त्रियाँ व्रत अवश्य करें||७३|| 

दूसरे दिन सुवर्ण, चाँदी, ताँबा अथवा बाँस के पात्र में अन्न भरकर ब्राह्मण को दान दें और पारण करें||७४|| 

जो स्त्री इस प्रकार व्रत करती है, वह मेरे समान पति पाती है और जब वह मरने लगती है, तो तुम्हारे समान उसका रूप हो जाता है। उसे सब प्रकार के सांसारिक भोग और सायुज्य मुक्ति मिल जाती है || ७५ || 

इस हरतालिका की व्रत- कथा मात्र सुन लेने से प्राणी को एक हजार अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है || ७६ || 

हे देवि ! मैंने यह सब व्रतों में उत्तम व्रत बतलाया, जिसके करने से प्राणी सब पापों से छूट जाता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं॥७७॥