भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हरतालिका (तीज) व्रत की संज्ञा से विभूषित किया गया है। इस व्रत का महत्त्व आज से नहीं, अपितु प्राचीन समय से ही है। इसका मुख्य कारण यह है कि इस व्रत को विवाह से पूर्व करने से मनोवांछित पति की प्राप्ति निःसन्देह होती है तथा विवाहोपरान्त इस व्रत को करने से स्त्रियाँ अखण्ड सौभाग्यवती होती हैं। तथा सभी प्रकार के सुख एवं ऐश्वर्यों को प्राप्त करती हैं। इस पुस्तक में पूजन-विधान व कथा सरल रूप से प्रस्तुत की गयी है, जिससे सभी इसका अनुसरण कर सकें।
निर्देश
व्रत करने वाले को चाहिए कि सूर्योदय के पहले उठकर भगवान् का स्मरण करे, फिर शौच, दन्तधावन, स्नान तथा सन्ध्या-वन्दन आदि से निवृत्त होकर जहाँ शिव-पार्वती का पूजन करना और कथा सुनना हो वहाँ शिव-पार्वती के पूजन के लिए केला, बन्दनवार आदि से सुसज्जित एक छोटा मण्डप बनावे, उसी में अपने बन्धु-बान्धवों के साथ बैठे और अपने आचार्य को आदर पूर्वक बुला कर उनके लिए एक उत्तम आसन बिछा दे। इसके बाद में कुश, जल आदि लेकर ‘ॐ अद्येत्यादि’ से ‘अहङ्करिष्ये’ तक का संकल्प- वाक्य पढ़ कर संकल्प करे, फिर हाथ में अक्षत, फूल लेकर ‘मन्दारमाला’ इस मन्त्र से पार्वतीजी का ध्यान करे। ‘आगच्छ देवि’ तथा ‘राज्य – सौभाग्यदे’ आदि मन्त्रों से आचमन करावे। ‘मन्दाकिनी’ इससे पार्वती को पञ्चामृत से स्नान कराकर शुद्धोदक स्नान करावे । ‘वस्त्रयुग्मं’ इस मन्त्र से वस्त्र का जोड़ा चढ़ावे। ‘चन्दनेन’ इस मन्त्र से चन्दन लगावे । ‘रंजिते’ इस मन्त्र से अक्षत देवे। ‘माल्यादीनि’ इस मन्त्र से फूल-माला चढ़ावे। ‘चन्दनागरु’ इस मन्त्र से धूप देवे, ‘त्वं ज्योति:’ इससे दीप दिखावे, ‘नैवेद्यं’ इससे नैवेद्य चढ़ावे। ‘इदं फलं’ इस मन्त्र से फल चढ़ावे। ‘पूगीफलं’ इससे पान, ‘सौभाग्यं’ इससे प्रार्थना करे।
पूजनारम्भः
व्रती को चाहिये कि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर आचमन कर देश, काल, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि आदि का उच्चारण करते हुए संकल्प करे – ‘ॐ अद्येत्यादिदेशकालौ स्मृत्वा- सर्वपापक्षयपूर्वक- सप्तजन्मराज्याति- सौभाग्याऽवैधव्य – पुत्रपौत्रादि- वृद्धि-सकल- भोगान्तरशिवलोक-महिमत्वकामनया सोपवास- हरतालिकाव्रतनिमित्तं यथाशक्ति- जागरणपूर्वक – उमामहेश्वर- पूजनमहं करिष्ये । निम्न क्रमानुसार पूजन करें-
ध्यानम्—
मन्दारमालाकुलितालकायै कपालमालांकितशेखराय ।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥
आवाहनम् — आगच्छ देवि सर्वेशे सर्वदेवाश्च संस्तुते। अतस्त्वां पूजयिष्यामि प्रसन्ना भव पार्वति ॥
आसनम् — शिवे शिवप्रिये देवि मङ्गले च जगन्मये । शिवे कल्याणदे देवि शिवरूपे नमोऽस्तु ते ॥
पाद्यम् — शिवरूपे नमस्तेऽस्तु शिवाय सततं नमः । शिवप्रीतियुता नित्यं पाद्यं मे प्रतिगृह्यताम् ॥
अर्घ्यम् — संसारतापविच्छेदं कुरु मे सिंहवाहिनि। सर्वकामप्रदे देवि अर्घ्यं मे प्रतिगृह्यताम् ॥
आचमनम् —
राज्यसौभाग्यदे देवि प्रसन्ना भव पार्वती । मन्त्रेणानेन देवि त्वं पूजिताऽसि महेश्वरि ॥
लोकानां तुष्टिकर्त्री च मुक्तिदा च सदा नृणाम्। वाञ्छितं देहि मे नित्यं दुरितं च विनाशय ॥
पञ्जचामृतस्नान — पञ्चामृतं मयाऽऽनीतं पयो दधिघृतं मधु । शर्करा च समायुक्तं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ।।
शुद्धजलस्नानम् — मन्दाकिनी गोमती च कावेरीच सरस्वती । कृष्णा च तुङ्गभद्रा च सर्वाः स्नानार्थमागताः ।।
वस्त्रम् — वस्त्रयुग्मं गृहाणेदं देवि देवस्य वल्लभे । सर्वसिद्धिप्रदे देवि मङ्गलं कुरु मे सदा ॥
चन्दनम् — चन्दनेन सुगन्धेन कर्पूरागुरुकुङ्कुमैः । लेपयेत् सर्वगात्राणि प्रीयतां च हरप्रिये ॥
अक्षतान् — रंजिते कुंकुमेनैव अक्षतैश्च सुशोभनैः । पूजयेद्विधिना देवि सुप्रसन्ना च पार्वतीम् ॥
पुष्पम् — माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो । मया दत्तानि पूजायाः पुष्पाणि प्रतिगृह्यताम् ॥
धूपम् — चन्दनागरुकस्तूरी कुंकुमाढ्या मनोहराः । भक्त्या दत्ता मया देवि धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥
दीपम् — त्वं ज्योतिः सर्वदेवानां तेजसां तेज उत्तमम् । आत्मज्योतिः परं धाम दीपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥
नैवेद्यम् — नैवेद्यं गृह्यतां देवि भक्तिं मे निश्चलां कुरु । ईप्सितं च वरं देहि परत्र च परां गतिम् ॥
फलम् — इदं फलं मया देवि स्थापितं पुरतस्तव । येन मे सफलं कर्म भवेज्जन्मनि जन्मनि ॥
ताम्बूलम् — पूगीफलं महद् दिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम् । कर्पूरेण समायुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् ॥
दक्षिणा — हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः । अनन्तपुण्यफलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥
प्रार्थना —
सौभाग्यं चाप्यवैधव्यं पुत्र-पौत्रादिकं सुखम् । बहुपुण्यफलं सर्वमतः शान्तिं च देहि मे ॥
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं यदीश्वरी । पूजिताऽसि महादेवि सम्पूर्णं च वदस्व मे ॥
इति उमा-महेश्वर-पूजाविधिः समाप्त।
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
हरतालिका व्रत-कथा
मन्दारमालाकुलितालकायै कपालमालाङ्कितशेखराय । दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ १ ॥
कैलासशिखरे रम्ये गौरी पृच्छति शङ्करम्। गुह्याद् गुह्यतर गुह्यं कथयस्व महेश्वर ॥ २ ॥
सर्वेषां सर्वधर्माणामल्पायासं महत्फलम् । प्रसन्नोऽसि मया नाथ तथ्यं ब्रूहि ममाग्रतः ॥ ३ ॥
केन त्वं हि मया प्राप्तस्तपोदानव्रतादिना । अनादिमध्य – निधनो भर्ता चैव जगत्प्रभुः ॥ ४ ॥
ईश्वर उवाच – शृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि तवाग्रे व्रतमुत्तमम् । यद्गोप्यं मम सर्वस्वं कथयामि तव प्रिये ॥ ५ ॥
(पूजन करने के बाद कथा सुने) सूतजी कहते हैं- मन्दार की माला से जिन (पार्वतीजी) का केशपाश अलंकृत है और मुण्डों की माला से जिन (शिवजी) की जटा अलंकृत है, जो (पार्वतीजी) दिव्य वस्त्र धारण की हैं और जो (शिवजी) दिगम्बर (नंगे) हैं, ऐसी श्रीपार्वतीजी तथा शिवजी को प्रणाम करता हूँ || १ ||
रमणीक कैलास पर्वत के शिखर पर बैठी हुई श्रीपार्वतीजी कहती हैं- हे महेश्वर ! हमें कोई गुप्त व्रत या पूजन बताइये || २ ||
जो सब धर्मों से सरल हो, जिसमें परिश्रम भी कम करना पड़े, लेकिन फल अधिक मिले। हे नाथ ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हों तो यह विधान बताइये || ३ ||
हे प्रभो ! किस तप, व्रत या दान से आदि, मध्य और अन्त रहित आप जैसे महाप्रभु हमको प्राप्त हुए हैं || ४ ||
शिवजी बोले-हे देवि! सुनो, में तुमको एक व्रत जो मेरा सर्वस्व और छिपाने योग्य है, लेकिन तुम्हारे प्रेम के वशीभूत होकर मैं तुम्हें बतलाता ॥ ५ ॥
यथा चोडुगणे चन्द्रो ग्रहाणां भानुरेव च। वर्णानां च यथा विप्रो देवानां विष्णुरेव च ॥ ६ ॥
यथा चोडुगणे चन्द्रो ग्रहाणां भानुरेव च। वर्णानां च नदीनां च यथा गंगा पुराणानां च भारतम्। वेदानां च यथा साम इन्द्रियाणां मनो यथा ॥ ७ ॥
पुराणानां वेदसर्वस्वं आगमेन यथोदितम्। एकाग्रेण शृणुष्वैतद्यथा दृष्टं पुरा व्रतम् ॥ ८ ॥
येन व्रतप्रभावेण प्राप्तमर्द्धासनं मम । तत्सर्वं कथयिष्येऽहं त्वं मम प्रेयसी यतः ॥ ९ ॥
भाद्रे मासि सिते पक्षे तृतीया हस्तसंयुते। तदनुष्ठानमात्रेण सर्वपापात् प्रमुच्यते ॥ १० ॥
शृणु देवि त्वया पूर्वं यद् व्रतं चरितं मम । तत्सर्वं कथयिष्यामि यथा वृत्तं हिमालये ॥ ११ ॥
पार्वत्युवाच – कथं कृतं मया नाथ व्रतानामुत्तमं व्रतम् । तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्सकाशान्महेश्वर ॥ १२॥
शिव उवाच- अस्ति तत्र महान्दिव्यो हिमवान्वै नगेश्वरः । नानाभूमिसमाकीर्णो नाना- द्रुमसमाकुलः ॥ १३ ॥
जैसे-नक्षत्रों से चन्द्रमा, ग्रहों में सूर्य, वर्णों में ब्राह्मण, देवताओं में विष्णु भगवान् ||६||
नदियों में गंगा, पुराणों में महाभारत, वेदों में सामवेद और इन्द्रियों में मन श्रेष्ठ है || ७ ||
सब पुराण और वेदों का सर्वस्व जिस तरह कहा गया है, मैं तुम्हें एक प्राचीन व्रत बतलाता हूँ, एकाग्र मन से सुनो ॥८॥ जिस व्रत के प्रभाव से तुमने मेरा आधा आसन प्राप्त किया है, वह मैं तुमको बतलाऊँगा, क्योंकि तुम मेरी प्रेयसी हो || ९ ||
भाद्रपद मास में हस्त नक्षत्र से युक्त शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को उसका अनुष्ठान मात्र करने से स्त्रियाँ सब पापों से मुक्त हो जाती हैं ||१०||
हे देवि ! तुमने आज से बहुत दिनों पहले हिमालय पर्वत पर इस व्रत को किया था, यह वृत्तान्त मैं तुमसे कहूँगा ।। ११ ।।
पार्वतीजी ने पूछा- हे नाथ! मैंने क्यों यह व्रत किया था, यह सब आपके मुख से सुनना चाहती हूँ ।। १२ ।।
शिवजी ने कहा-भारतवर्ष के उत्तर की ओर एक बड़ा रमणीक और पर्वतों में श्रेष्ठ हिमवान नामक पर्वत है। उसके आस-पास तरह-तरह की भूमियाँ हैं, तरह-तरह के वृक्ष उस पर लगे हुए हैं ।। १३ ।।
नानापक्षिसमायुक्तो नानामृगविचित्रतः । यत्र देवाः सगन्धर्वाः सिद्धचारणगुह्यकाः ॥ १४ ॥
विचरन्ति सदा हृष्टागन्धर्वा गीततत्पराः । स्फटिकैः काञ्चनं शृङ्गं मणिवैदूर्यभूषितम् ॥ १५ ॥
भुजैर्लिखन्निवाकाशं सुहृदो मन्दिरं यथा । हिमेन पूरितं सर्वं गंगाध्वनिविनोदितः ॥ १६ ॥
पार्वति त्वं यथा बाल्ये परमाचरती तपः । अब्दद्वादशकं देवि धूम्रपानमधोमुखी ॥ १७ ॥
संवत्सरचतुः षष्टि पक्वपर्णाशनं कृतम् । माघमासे जले मग्ना वैशाखे चाग्निसेविनी ॥ १८ ॥
श्रावणे च बहिर्वासा अन्नपानविवर्जिता । दृष्ट्वा तातेन तत्कष्टं चिन्तया दुःखितोऽभवत् ॥ १९ ॥
कस्मै देया मया कन्या एवं चिन्तातुरोऽभवत्। तदैवावसरे प्राप्तो ब्रह्मपुत्रस्तु धर्मवित् ॥ २० ॥
नारदो मुनिशार्दूलः शैलपुत्री दिदृक्षया । दत्वाऽर्घ्यविष्टरं पाद्यं नारदं प्रोक्तवान् गिरिः ॥ २१ ॥
नाना प्रकार के पक्षी और अनेक प्रकार के पशु उस पर निवास करते हैं। वहाँ पहुँच कर गन्धर्वों के साथ बहुत से देवता, सिद्ध, चारण, पक्षीगण सर्वदा प्रसन्न मन से विचरते हैं। वहाँ पहुँच कर गन्धर्व गाते हैं, अप्सरायें नाचती उस पर्वतराज के कितने ही शिखर ऐसे हैं कि जिनमें स्फटिक, रत्न और वैदूर्यमणि आदि की खाने भरी हैं । । १४-१५ ।। यह पर्वत ऊँचा तो इतना अधिक है कि मित्र के घर की तरह समझ कर आकाश का स्पर्श किये रहता है। उसके समस्त शिखर सदैव हिम (बर्फ) से आच्छादित रहते हैं और गङ्गा-जल की ध्वनि सदा सुनाई देती रहती है ।। १६ ।।
हे पार्वती ! तुमने बाल्यकाल में उसी पर्वत पर तपस्या की थी । बारह वर्ष तक तुम उलटी टँगकर केवल धुआँ पीकर रही । । १७ ।।
चौंसठ वर्ष तक सूखे पत्ते खाकर रही। माघ मास में तुम जल मैं बैठी रहती और वैशाख की दुपहरिया में पंचाग्नि तापती थी ।। १८ ।।
श्रावण के महीने में जल बरसता तो तुम भूखी-प्यासी रह कर मैदान में बैठी रहती थी। तुम्हारे पिता इस तरह के कष्ट सहन को देख कर बड़े दुःखी हुए ।। १९ ।।
वे चिन्ता में पड़ गये कि मैं अपनी कन्या किसको दूँ, उसी समय नारदजी वहाँ आ पहुँचे।।२०।।
मुनिश्रेष्ठ नारदजी उस समय तुम्हें देखने गये थे, नारदजी को देखकर गिरि ने अर्घ्य पाद्य, आसन आदि देकर उनकी पूजा की और कहा ।। २१ ।।
हिमवानुवाच – किमर्थमागतः स्वामिन्! वदस्व मुनिसत्तम । महाभागेन संप्राप्तः त्वदागमनमुत्तमम् ॥ २२॥
नारद उवाच – शृणु शैलेन्द्र मद्वाक्यं विष्णुना प्रेषितोऽस्म्यहम् । योग्यं योग्याय दातव्यं कन्यारत्नमिदं त्वया ॥ २३ ॥
वासुदेवसमो नास्ति ब्रह्मशक्रशिवादिषु । तस्माद् देया त्वया कन्या अत्रार्थे सम्मतं मम ॥ २४ ॥
हिमवानुवाच – वासुदेवः स्वयं देव कन्यां प्रार्थयते यदि । तदा मया प्रदातव्या त्वदागमनगौर- वात् ।। २५ ।।
इत्येवं कथितं श्रुत्वा नभस्यन्तर्दधे मुनिः । ययौ पीताम्बरधरं शंखचक्रगदा- धरम्॥२६॥
नारद उवाच- कृताञ्जलिपुटो भूत्वा मुनीन्द्रस्तमभाषत । शृणु देव भवत्कार्यं विवाहो निश्चितस्तव ॥ २७ ॥
हिमवांस्तु ततो गौरीमुवाच वचनं मुदा । दत्तासि त्वं मया पुत्रि! देवाय गरुडध्वजे ।। २८ ।।
श्रुत्वा वाक्यं पितुर्देवी गता च सखिमन्दिरम्। भूमौ पतित्वा त्वं तत्र विललापातिदुःखिता ।। २९ ।।
हे स्वामिन् ! आप किस लिए आये हैं। मेरा अहो भाग्य है, आपका आगमन मेरे लिए अच्छा है।।२२।।
नारदजी ने कहा- हे पर्वतराज ! सुनो, मैं भगवान् विष्णु का भेजा हुआ आपके पास आया हूँ। आपको चाहिए कि यह कन्यारत्न किसी योग्य वर को दें ।। २३ ।।
भगवान् विष्णु के समान योग्य वर ब्रह्मा, इन्द्र और शिव इनमें- से कोई नहीं है। इसलिये मैं यही कहूँगा कि आप अपनी कन्या भगवान् विष्णु को ही देवें ।। २४ ।।
हिमवान् ने कहा-भगवान् विष्णु स्वयं मेरी कन्या ले रहे हैं और आप यह सन्देश लेकर आये हैं, तो मैं उन्हें अपनी कन्या दूँगा ।। २५ ।।
हिमवान् की इतनी बात सुनकर मुनिराज नारद आकाश में विलीन हो गये। वे पीताम्बर, शङ्ख, चक्र और गदाधारी भगवान् विष्णु के पास पहुँचे॥२६॥ वहाँ हाथ जोड़कर नारदजी ने भगवान् विष्णु से कहा- हे देव ! सुनिये, मैंने अपना विवाह पक्का करा दिया ।। २७।।
उधर हिमवान् ने पार्वती के पास जाकर कहा कि हे पुत्री ! मैंने तुम्हें भगवान् विष्णु को दे डाला ||२८||
तब पिता की बात सुनकर तुम बिना उत्तर दिये ही अपनी सखी के घर चली गयी। वहीं जमीन पर पड़ कर तुम बड़ी दुःखी होती हुई विलाप करने लगी ।। २९ ।।
सख्युवाच – विलपन्तीं तदा दृष्ट्वा सखी – वचनमब्रवीत् । किमर्थं दुःखिता देवि कथयस्व ममाग्रतः ॥ ३० ॥ यद्भवत्याभिलषितं करिष्येऽहं न संशयः । पार्वत्युवाच – सखि शृणु मम प्रीत्या मनोऽभिलषितं मम ॥ ३१ ॥
महादेवं च भर्तारं करिष्येऽहं न संशयः । एतन्मे चिन्तितं कार्यं तातेन कृतमन्यथा ॥ ३२ ॥
तस्माद् देहपरित्यागं करिष्येऽहं न संशयः । पार्वत्या वचनं श्रुत्वा सखीवचनमब्रवीत् ॥ ३३ ॥
सख्युवाच-पिता यत्र न जानाति गमिष्यामि हि तद्वनम् । इत्येवं सम्मतं कृत्वा नीतासि त्वं महद्वनम् ॥ ३४ ॥
पिता निरीक्षयामास हिमवांस्तु गृहे गृहे । केन नीताऽस्ति मे पुत्री देवदानवकिन्नराः ॥ ३५ ॥
नारदाग्रे कृते सत्यं दास्ये च गरुडध्वजे । इत्येवं चिन्तयाविष्टो मूर्च्छितोऽपि गतापहः ॥ ३६ ॥
हाहा कृत्वा प्रधावन्तो लोकास्ते गिरिपुङ्गवम् । ऊचुर्गिरिवरं सर्वे मूर्च्छाहेतुं गिरे ! वद ॥ ३७ ॥
तुमको इस तरह विलाप करते देख एक सखी ने पास आकर कहा-देवि, तुम क्यों इतनी दुःखी हो, इसका कारण बताओ ||३०||
तुम्हारी जो कुछ इच्छा होगी मैं यथाशक्ति उसको पूरा करने की चेष्टा करूँगी, इसमें कोई संशय नहीं है। पार्वती बोलीं- मेरी जो कुछ अभिलाषा है उसे तुम प्रेमपूर्वक सुनो, मैं एकमात्र शिवजी को अपना पति बनाना चाहती हूँ, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। मेरे इस विचार को पिताजी ने ठुकरा दिया है ।। ३१-३२ ।।
इससे मैं अपने शरीर को त्याग दूँगी। पार्वती की इस बात सुन कर सखियों ने कहा ||३३||
कि शरीर का त्याग न करो, चलो किसी ऐसे वन को चलें जहाँ पिता को पता न लगे। ऐसी सलाह कर तुम वैसे वन में जा पहुँची ।। ३४ ।।
उधर तुम्हारे पिता घर-घर तुम्हें खोजने लगे। दूतों द्वारा भी खबर लेने लगे कि कौन देवता या किन्नर मेरी पुत्री को हर ले गया है ।। ३५ ।।
उन्होंने मन-ही-मन कहा-मैं नारदजी के आगे प्रतिज्ञा कर चुका हूँ कि अपनी पुत्री भगवान् विष्णु को दूँगा। ऐसा सोचते-सोचते हिमवान् मूर्च्छित हो गये॥ ३६ ॥
गिरिराज को मूर्च्छित देखकर सब लोग हाहाकार करते दौड़ पड़े। जब होश हुआ तो सब पूछने लगे कि गिरिराज ! आप अपनी मूर्च्छा का कारण बताइये?।। ३७।।
दुःखस्य हेतुं शृणुत कन्यारत्नं हृतं मम । दंष्ट्रा वा कालसर्पेण सिंहव्याघ्रेण वा हता ॥ ३८ ॥
न जाने क्व गता पुत्री केन दुष्टेन वा हृता । चकम्पे शोकसन्तप्तो वातेनेव महातरुः ।। ३९ ।।
गिरिर्वनाद्वनं तातस्त्वदालोकनकारणात्। सिंहव्याघ्रैश्च भल्लैश्च रोहिभिश्च महावनम् ॥ ४० ॥
त्वं चापि विपिने घोरे व्रजन्ती सखिभिः सह । तत्र दृष्ट्वा नदी रम्यां तत्तीरे च महागुहाम्॥ ४१ ॥
तां प्रविश्य सखी सार्द्धमन्नभोगविवर्जिता । संस्थाप्य बालुकालिङ्गं पार्वत्या सहितं मम ॥ ४२ ॥
भाद्रशुक्लतृतीयायां त्वमर्चन्ति तु हस्तभे । तत्र वाद्येन गीतेन रात्रौ जागरणं कृतम् ॥ ४३ ॥
व्रतराजप्रभावेण आसनं चलितं मम । संप्राप्तोऽहं तदा तत्र यत्र त्वं सखिभिः सह ॥ ४४ ॥
हिमवान् ने कहा- आप लोग मेरे दुःख का कारण सुनें, न मालूम कौन मेरी कन्या को हर ले गया है। ऐसा नहीं हुआ तो उसे किसी काले साँप ने काट लिया या सिंह खा गये होंगे ।। ३८ ।।
हाय ! हाय ! मेरी बेटी कहाँ गयी ? किसी दुष्ट ने मेरी पुत्री को मार डाला। ऐसा कह वे वायु के झोंके से काँपते हुए वृक्ष के समान काँपने लगे ।। ३९ ।।
इसके बाद हिमवान् तुम्हें वन-वन खोजने लगे। वह वन भी सिंह, भालू, हिंसक जन्तुओं से बड़ा भयानक हो रहा था ।। ४० ।।
तुम भी अपनी सखियों के साथ उस भयानक वन में चलती चलती एक ऐसे जगह जा पहुँची जहाँ एक नदी बह रही थी, उसके रमणीय तट पर एक बड़ी-सी कन्दरा थी । । ४१ ।।
तुमने उसी कन्दरा में आश्रम बना लिया और मेरी एक बालुकामयी प्रतिमा बना कर अपनी सखियों के साथ निराहार रह कर मेरी आराधना करने लगी ।। ४२ ।।
जब भाद्रपद शुक्ल पक्ष की हस्तयुक्त तृतीया तिथि प्राप्त हुई तब तुमने मेरा विधिवत् पूजन किया और रात भर जाग कर गीत-वाद्यादि से मुझे प्रसन्न करने में बिताया। उस व्रतराज के प्रभाव से मेरा आसन डगमगा उठा। जिससे मैं तत्काल उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ पर तुम अपनी सखियों के साथ रहती थी।।४३-४४ ।।
प्रसन्नोऽस्मि मया प्रोक्तं वरं ब्रूहि वरानने। यदि देव प्रसन्नोऽसि भर्त्ता भव महेश्वर ॥ ४५ ॥
तथेत्युक्त्वा तु संप्राप्तः कैलासः पुनरेव च । ततः प्रभाते प्रतिमां नद्यां कृत्वा विसर्जनम् ॥ ४६ ॥
पारणं तु कृतं तत्र सख्या सह त्वया शुभे । हिमवानपि तं देशमाजगाम घनं वनम् ॥ ४७ ॥
चतुराशां निरीक्षस्तु विकलः पतितो भुवि । दृष्ट्वा तत्र नदीतीरे प्रसुप्तं कन्यकाद्वयम् ॥ ४८ ॥
उत्थाप्योत्संगमारोप्य रोदनं कृतवान् गिरिः । सिंहव्याघ्रादिभिर्युक्तं किमर्थं वनमागता ॥ ४९ ॥
पार्वत्युवाच – शृणु तात मया पूर्वं दत्ता स्वात्मा तु शंकरे। तदन्यथा कृतं तात तेनाहं वनमागता ॥ ५० ॥
तथोत्युक्त्वा तु हिमवान् नीतासि त्वं गृहं प्रति । यथाप्रयुक्तमस्माकं कृत्वां वैवाहिकी क्रियाम् ॥ ५१ ॥
तेन व्रतप्रभावेण प्राप्तमर्द्धासनं प्रिये । तदादि व्रतराजस्तु कस्याग्रे न न्यवेदयन् ॥ ५२ ॥
वहाँ पहुँच कर मैंने तुमसे कहा कि मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, बोलो क्या चाहती हो ? तुमने कहा-मेरे देवता ! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं, तो मेरे पति बनें। मेरे ‘तथास्तु’ कह कर कैलास पर्वत पर वापस आने पर तुमने वह प्रतिमा नदी में प्रवाहित कर दी ।। ४५-४६ ।।
और सखियों के साथ उस महाव्रत का पारण किया। हिमवान् भी तब तक उस वन में तुम्हें खोजते हुए आ पहुँचे ।। ४७ ।।
चारों दिशाओं में तुम्हारी खोज करते-करते वे व्याकुल हो चुके थे। इसलिए तुम्हारे आश्रम के समीप पहुँचते ही गिर पड़े। थोड़ी देर बाद उन्होंने नदी के तट पर दो कन्यायें देखीं ॥। ४८ ।।
देखते ही उन्होंने तुम्हें छाती से लगा लिया और विलख कर रोने लगे। फिर पूछा- पुत्री ! तुम सिंह, व्याघ्र आदि जन्तुओं से भरे इस वन में क्यों आ पहुँची ? ।। ४९ ।।
पार्वती ने उत्तर दिया – हे पिताजी, मैंने पहले ही अपने-आपको शिवजी के हाथों सौंप दिया था, आपने मेरी बात टाल दी इससे मैं यहाँ चली आयी ।। ५० ।।
हिमवान् ने सान्त्वना दिया कि हे पुत्री ! मैं तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कुछ न करूँगा। तुम्हें अपने साथ ले घर आये और मेरे साथ तुम्हारा विवाह कर दिये। इसीसे तुमने मेरा अर्धासन पाया है। तब से आज तक किसी के सामने मुझे यह व्रत प्रकट करने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ।। ५१-५२ ।।
व्रतराजस्य नामेदं शृणु देवि यथा भवेत् । आलिभिर्हरिता यस्मात्तस्मात्सा हरतालिका ॥ ५३ ॥
पार्वत्युवाच – नामेदं कथितं नाथ विधिं वद मम प्रभो। किं पुण्यं किं फलं चास्य केन वा क्रियते व्रतम् ॥ ५४॥
ईश्वर उवाच – शृणु देवि विधिं वक्ष्ये नराणां व्रतमुत्तमम् । कर्तव्यं तु प्रयत्नेन यदि सौभाग्यमिच्छति॥५५॥
तोरणादि प्रकर्त्तव्यं कदलीस्तम्भमण्डितम्। आच्छाद्य पटवस्त्रेण नानावर्णविचित्रितम् ॥ ५६ ॥
चन्दनादि सुगन्धेन लेपयेद् गृहमण्डपम् । शंखभेरीमृदङ्गांश्च वादयेत् बहुभिर्जनैः ॥ ५७ ॥
नानामङ्गलसञ्चारैः कर्तव्यं मम सद्मनि । स्थापयेत्प्रतिमां तत्र पार्वत्या सहिता मम ॥ ५८ ॥
हे देवि ! मैं यह बताता हूँ कि इस व्रत का हरतालिका नाम क्यों पड़ा ? तुमको सखियाँ हर ले गयी थीं, इसीसे हरतालिका नाम पड़ा ।। ५३ ।।
पार्वतीजी ने कहा- हे प्रभो ! आपने नाम तो बताया अब विधि भी बतायें। इसका क्या पुण्य है, क्या फल है, यह व्रत कौन करे ? ।। ५४ ।।
श्रीशिवजी पार्वतीजी से कहते हैं- हे देवि! मैं स्त्री जाति की भलाई के लिए यह उत्तम व्रत बतलाया हूँ। जो स्त्री अपने सौभाग्य की रक्षा करना चाहती हो वह यत्नपूर्वक इस व्रत को करे ।। ५५ ।।
पहले केले के खम्भे आदि से सुशोभित एक सुन्दर मण्डप बनावे। उसमें रंग-बिरंगे रेशमी कपड़ों से चंदवा लगाकर ॥ ५६ ॥
चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों से वह मण्डप लिपवावे, फिर शंख, भेरी, मृदंग आदि बजाते हुए बहुत से लोग एकत्रित होकर तरह-तरह के मङ्गलाचार कहते हुए उस मण्डप में पार्वतीजी तथा शिवजी की प्रतिमा स्थापित करें ।। ५७-५८ ।।
पूजयेद् बहुभिः पुष्पैर्गन्धैर्धूपैर्मनोहरैः । नानाप्रकारैर्नैवैद्यैरुपोष्य जागरणं निशि ॥ ५९ ॥
नारिकेलैः पुङ्गफलैर्जम्बीरैः सलवङ्गकैः । बीजपूरैस्तु नारंगैः फलैरन्यैर्विशेषतः ।। ६० ।।
ऋतुदेशोद्भवैश्चैव फलैश्च कुसुमैरपि । धूपदीपादिभिश्चैव मन्त्रेणानेन पूजयेत् ॥ ६१ ॥
शिवायै शिवरूपिण्यै मङ्गलायै महेश्वरी । शिवे सर्वार्थदे देवि शिवरूपे नमोऽस्तु ते ॥ ६२ ॥
शिवरूपे नमस्तुभ्यं शिवायै सततं नमः । नमस्ते ब्रह्मरूपिण्ये जगद्धात्र्यै नमो नमः ॥ ६३ ॥
संसार- भय- संत्रस्तस्त्राहि मां सिंहवाहिनि। येन कामेन भो देवि पूजितासि महेश्वरी ॥ ६४ ॥
राज्यसौभाग्यं मे देहि प्रसन्ना भव पार्वती । मन्त्रेणानेन भो देवि पूजयेदुमया सह ॥ ६५ ॥
कथां श्रुत्वा विधानेन दद्याद्वस्त्रादिकं तथा । ब्राह्मणाय प्रदातव्यं वस्त्रधेनुहिरण्यकम् ॥ ६६ ॥
कृत्वैवं चैकचित्तेन दम्पतीभ्यां सहैव तु । सङ्कल्पस्तु ततः कुर्याद्वस्त्ररत्नादिकं च यत् ॥ ६७ ॥
उस रोज दिन भर उपवास कर बहुत से सुगन्धित फूल, गन्ध और मनोहर धूप, नाना प्रकार के नैवेद्य आदि एकत्र कर मेरी पूजा करे और रात भर जागरण करे ।। ५९ ।।
ऊपर जो वस्तुएँ गिनाई गई हैं उनके अतिरिक्त नारियल, सुपारी, जमीरी नीबू, लौंग, अनार, नारंगी आदि जो-जो फल प्राप्त हो सके उन्हें इकट्ठा कर लें।।६०।।
उस ऋतु में जो फल तथा फूल मिल सके विशेष रूप से रखें। इसके बाद धूप, दीपादि से पूजन कर प्रार्थना करें ।। ६१ ।।
हे शिवे ! शिवरूपिणि, हे मंगले ! सब अर्थों को देने वाली हे देवि ! हे शिवरूपे ! आपको नमस्कार है ।। ६२ ।।
हे शिवरूपे ! आपको सदा के लिए नमस्कार है, हे ब्रह्मरूपिणि ! आपको नमस्कार है, हे जगद्धात्री ! आपको नमस्कार है ।। ६३ ।।
हे सिंहवाहिनी ! संसार के भय से भयभीत मुझ दीन की रक्षा करो। इस कामना की पूर्ति के लिये मैंने आपकी पूजा की है।।६४।।
हे पार्वती ! मुझे राज्य और सौभाग्य दें, मुझ पर प्रसन्न होवें। इन्हीं मन्त्रों से पार्वतीजी तथा शिवजी की पूजा करे।। ६५ ।।
तदनन्तर विधिपूर्वक कथा सुने और ब्राह्मण को वस्त्र, गौ, सुवर्ण आदि देवे ॥ ६६ ॥
इस तरह एकचित्त होकर स्त्री-पुरुष दोनों एक साथ पूजन करें। फिर वस्त्र आदि जो कुछ हो उसका संकल्प करें ।। ६७ ।।
एवं या कुरुते देवि ! सर्वपापैः प्रमुच्यते । सप्तजन्म भवेद्राज्यं सौभाग्यसुखदायकम् ॥ ६८ ॥
तृतीयायां तु या नारी अन्नाहारं समाचरेत् । सप्तजन्म भवेद्वन्ध्या वैधव्यं च पुनः पुनः ॥ ६९ ॥
दारिद्र्यं पुत्रशोकं च कर्कशा दुःखभागिनी । सा पतिता नरके घोरे नोपवासं करोति या ॥ ७०॥
अन्नाहारात् सूकरी स्यात्फलभक्षेण मर्कटी। जलौका जलपानेन क्षीरा हारेण सर्पिणी ॥ ७१ ॥
मांसाहाराद्भवेद् व्याघ्री मार्जारी दधिभक्षणात् । मिष्ठान्नात् पिपीलिका जन्म मक्षिका सर्वभक्षणात्॥७२॥ निद्रावशेनाजगरी कुक्कुटी पतिवञ्चनात् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन व्रतं कुर्युः सदा स्त्रियः ॥ ७३ ॥
काञ्चनं राजतं ताम्रं यथा वंशस्य भाजनम्। दापयेदन्नं विप्राय पारणं तदनन्तरम्॥७४॥
एवं विधिं या कुरुते च नारी, मया निभं सा लभते च स्वामिनम् । विनाशकाले तव तुल्यरूपं, सायुज्यभुक्तिं लभते च मुक्तिम् ॥७५॥
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च । कथाश्रवणमात्रेण तत्फलं प्राप्यते नरः ॥ ७६ ॥
एतत्ते कथितं देवि ! व्रतानां व्रतमुत्तमम् । यत्कृत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥ ७७ ॥
हे देवी ! जो स्त्री इस प्रकार पूजन करती है वह सब पापों से छूट जाती है और उसे सात जन्म तक सुख तथा सौभाग्य प्राप्त होता है ॥६८॥
जो स्त्री तृतीया तिथि का व्रत न कर अन्न भक्षण करती है, तो वह सात जन्म तक बन्ध्या रहती है और उसको बार-बार विधवा होना पड़ता है।।६९।।
वह सदा दरिद्री, पुत्र-शोक से शोकाकुल, स्वभाव की लड़ाकी, सदा दुःख भोगने वाली होती है और उपवास न करने वाली स्त्री अन्त में घोर नरक में जाती है ।। ७० ।।
तीज को अन्न खाने से सूकरी, फल खाने से बँदरिया, पानी पीने से जोंक, दूध पीने से साँपिन, मांसाहार करने से बाघिन, दही खाने से बिल्ली, मिठाई खाने से चींटी और सब खाने से मक्खी होती है।।७१ – ७२ ।।
उस रोज सोने से अजगरी और पति को धोखा देने से मुर्गी होती है, इसलिए हर स्त्रियाँ व्रत अवश्य करें।।७३।।
दूसरे दिन सुवर्ण, चाँदी, ताँबा अथवा बाँस के पात्र में अन्न भरकर ब्राह्मण को दान दें और पारण करें।।७४।।
जो स्त्री इस प्रकार व्रत करती है, वह मेरे समान पति पाती है और जब वह मरने लगती है, तो तुम्हारे समान उसका रूप हो जाता है। उसे सब प्रकार के सांसारिक भोग और सायुज्य मुक्ति मिल जाती है ।। ७५ ।।
इस हरतालिका की व्रत- कथा मात्र सुन लेने से प्राणी को एक हजार अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है ।। ७६ ।।
हे देवि ! मैंने यह सब व्रतों में उत्तम व्रत बतलाया, जिसके करने से प्राणी सब पापों से छूट जाता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं॥७७॥
हरतालिका व्रत-कथा समाप्त।
भगवान् श्री शिवजी की आरती करें|